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आत्मचिंतन के क्षण
हे मनुष्य! इस संसार में दुःख का कारण असन्तोष है और सन्तोष ही सुख है। जिन्हें सुख की क ामना हो, वे सन्तुष्ट रहा करें। सन्तोष एक महान् अध्यात्मिक भाव है, जो मनुष्य के हृदय की विशालता को व्यक्त करता है। धैर्य, सहन शक्ति, त्याग और उदारता ये सब सन्तोष का अनुगमन करते हैं। सन्तोषी पुरुषों में शेष सभी सद्गुण और शुभ संस्कार स्वतः आ जाते हैं।
क्रोधो वैवस्वतो राजा तृष्णा वैतरणी नदी। विद्या कामदुधा धेनुः सन्तोषो नंदनं वनम्। अर्थात् मनुष्य का विनाश क्रोध के कारण होता है और तृष्णा वैतरणी नदी के समान है, जिसका कभी अन्त नहीं होता। विद्या कामधेनु के समान है तथा सन्तोष नन्दन वन के समान है।
विज्ञान और अध्यात्म अन्योन्याश्रित है। एक दूसरे के पूरक हैं। एक के बिना दूसरे की गति नहीं। व...
आत्मचिंतन के क्षण
आशा की जानी चाहिए कि नव- सृजन की आवश्यकताओं को पूरा करने के लिए मनीषो, समय दानी धनी आदि प्रतिभावान अपनी- अपनी श्रद्धांजलि लेकर नवयुग के अभिनव सृजन में आगे बढ़ेगें और कहने लायक योगदान देंगे। इक्कीसवीं सदीं का उज्ज्वल भविष्य विनिर्मित करने के लिए इस प्रकार का सहयोग आवश्यक है और अनिवार्य भी।
‘‘उद्घरेदात्मनात्मानं’’ अपना उद्धार आप करो। अपनी प्रगति का पथ स्वयं प्रशस्त करो। जो माँगना है, अपने जीवन देवता से माँगो। बाहर दीखने वाली हर वस्तु का उद्गम केन्द्र अपना ही अन्तरंग है। आत्म देव की साधना ही जीवन देवता की उपासना है।
राम के कर्त्तव्य पालन में ,भरत के त्याग- तप में मीरा के प्रेम में, हरिश्चन्द्र के सत्य व्रत में, दधीचि के दान में, कृष्ण के अना...
आत्मचिंतन के क्षण
आशा आध्यात्मिक जीवन का शुभ आरम्भ है। आशावादी व्यक्ति सर्वत्र परमात्मा की सत्ता विराजमान देखता है। उसे सर्वत्र मंगलमय परमात्मा की मंगलदायककृपा बरसती दिखाई देती है। सच्ची शान्ति, सुख और सन्तोष मनुष्य की निराशावादी प्रवृत्ति के करण नहीं, अपने ऊपर अपनी शक्ति पर विश्वास करने से होता है।
गृहस्थाश्रम की सफलता तीन बातों पर निर्भर करती है। पहला गृहस्थ- जीवन के पूर्व की तैयारी, दूसरे पति- पत्नी के दाम्पत्य जीवन में आने का ध्येय, तीसरा गृहस्थ जीवन में एक दूसरे का व्यवहार और उनका कर्तव्य पालन।
तेजस्विता तपश्चर्या की उपलब्धि है, जो निजी जीवन में संयम, साधना और सामाजिक जीवन में परमार्थ परायणता के फलस्वरूप उद्भूत होती है। संयम- अर्थात् अनुशासन का, नीति...
आत्मचिंतन के क्षण
प्रेम गंगा की भाँति वह पवित्र जल है, जिसे जहाँ छिडका जाय, वहीं पवित्रता पैदा करेगा। उसमें आदर्शेंकी अविच्छिन्नता जुड़ी रहती है। आदर्श रहित प्यार को ही मोह कहते हैं। दूरदर्शिता, विवेकशीलता, शालीनता, पवित्रता, सदाशयता जैसे गुणों का भरपूर समावेश प्रेम में होता है। उसमें इन्हीं गुणों की अभिवृद्धि के लिए प्रयत्नशील रहता है। मोह इन विशेषताओं से रहित होता है।
दृष्टिकोण में संयम, सहकार, सन्तुलन स्नेह, सद्भाव, श्रम, साहस जैसे सद्गुणों का महत्व समझने और अपने स्वभाव, व्यवहार को सज्जनोचित बनाने की उपयोगिता समाविष्ट हो सके, तो समझना चाहिए कि आज गई- गुजरी स्थिति होने पर भी कल इन्हीं विशेषताओं के कारण उज्ज्वल भविष्य का सरंजाम जुटाना सुनिश्चित है।
धर्म व्यक्तित्...
आत्मचिंतन के क्षण
कोई व्यक्ति विद्वानों के साथ रहे पर उसके मन में वेश्याओं की छवि भाव भंगी, कुचेष्टाएँ नाचती रहें, और विकार पूर्ण अंगों तथा चेष्टाओं का चिंतन करता रहे तो निश्चय ही विद्वानों की संगति का उतना प्रभाव न होगा जितना उन मानसिक काम विकारों का होगा।
स्वाद को जीतने के लिए एक नियम तो यह है कि मसालों को सर्वथा अथवा जितना हो सके त्याग देना चाहिए, और दूसरा अधिक जोरदार उपाय यह है कि इस भावना की वृद्धि हमेशा की जाय कि हम स्वाद के लिए नहीं, केवल शरीर रक्षा के लिए ही भोजन करते हैं।
जीवन एक झूले है जिस में आगे भी और पीछे भी झोटे आती है। झूलने वाला पीछे जाते हुए भी प्रसन्न होता है। और आगे आते हुए भी, यह अज्ञानग्रस्त, माया मोहित, जीवन विद्या से अपरिचित लोग बात बात में अपना मानसिक संतु...
आत्मचिंतन के क्षण
कुशलता पूर्वक कार्य करने का नाम ही योग है, कुशल व्यक्ति संसार में सच्ची प्रगति कर सकता है जीवन का सर्वाेच्च लक्ष्य यही है कि मनुष्य प्रत्येक कार्य को विवेक पूर्वक करे। इससे मन निर्मल रहता है, आत्मा सजग हो जाता है और मस्तिष्क परिष्कृत रहता है। ऐसे विचारशील व्यक्ति को संशय और मोहग्रस्त होकर भटकना नही पड़ता।
अनासक्ति कर्मयोग का यह अर्थ कदापि नहीं है कि व्यस्थ रहकर कुछ भी अच्छा -बुरा किये जाओ ,कोई भी गुण दोष हमारे लिये नहीं आयेगा। अनासक्ति कर्मयोग का केवल यह अर्थ है कि अपने कर्मों के कर्मफल से प्रभावित होकर कर्म गति में व्यवधान अथवा विराम न आने दें जिससे दिन प्रति दिन अपने कर्मों में सुधार करते हुए परमपद की ओर बढ़ते जायें।
गृहस्थाश्रम समाज के संगठन मानवीय मूल्यों...
आत्मचिंतन के क्षण
स्वस्थ जीवन का आधार है- अध्यात्म सिद्धान्तों का जीवन के हर क्षण, हर गतिविधि में व्यापक समावेश। दवाओं से स्वास्थ्य नहीं खरीदा जा सकता। मनो,विकार व्यक्तिगत व समष्टिगत रोगों का मूल कारण है। राष्ट्र के समग्र स्वास्थ्य हेतु, इसके निवारण के लिए अध्यात्म सिद्धान्तों को उत्कृष्ठता की पक्षधर मान्यताओं का जन- स्तरीय व्यापक प्रचार- प्रसार अति आवश्यक है।
जिस तरह अग्नि, यज्ञ कुण्ड में प्रज्वलित होती है, वैसे ही ज्ञानाग्नि अन्तःकरण में, तपाग्नि इन्द्रियों में तथा कर्माग्नि देह में प्रज्वलित रहनी चाहिए। यही यज्ञ की। आध्यात्मि स्वरूप है। अपनी संकीर्णता, अहंता, स्वार्थपरता को जो इस दिव्य अग्नि में होम देता है, वह बदले में इतना प्राप्त करता है, जिससे नर को नारायण की पदवी मिल सके। &n...
आत्मचिंतन के क्षण
सच्चा साथी प्यार करता है, सलाह देता है तथा सुख- दुःख में सहयोग भी देता है। इसके अलावा वह शक्ति और सुरक्षा भी दे और प्रत्युपकार की जरा भी अपेक्षा न रखे, तो वह सोने में सुहागा हो जायेगा- ईश्वर ऐसा ही साथी है।
मनुष्य इसीलिए श्रेष्ठ है कि वह धर्म, सदाचार, नीति विशेष और परमार्थ को प्रधानता देता है। यदि वह इन पाँचों को छोड़ दे, तब तो उसे सबसे निकृष्ट कहा जाएगा, क्योंकि बुद्धि का उपयोग करके वह संसार में दुःख और क्लेशों को ही बढाता है।
आरोग्य रक्षा एवं स्वस्थ जीवन का महत्त्व पूर्ण सूत्र-
मित भुक् -- अर्थात भूख से कम खाना।
हित भुक् -- अर्थात्- सात्विक खाना।
ऋत भुक्- अर्थात् न्यायोपार्जित खाना।
महत्त्व की बात यह नहीं है कि हमने कितने लो...
आत्मचिंतन के क्षण
दम के समान कोई धर्म नहीं सुना गया है। दम क्या है? क्षमा, संयम, कर्म करने में उद्यत रहना, कोमल स्वभाव, लज्जा, बलवान, चरित्र, प्रसन्न चित्त रहना, सन्तोष, मीठे वचन बोलना, किसी को दुख न देना, ईर्ष्या न करना, यह सब दम में सम्मिलित है।
त्याग के बिना कुछ प्राप्त नहीं होता। त्याग के बिना परम आदर्श की सिद्धि नहीं होती। त्याग के बिना मनुष्य भय से मुक्त नहीं हो सकता। त्याग की सहायता से मनुष्य को हर प्रकार का सुख प्राप्त हो जाता है।
लोग अनेक प्रकार के मोह में जकडे़ हुए हैं। उनकी दशा ऐसी है, जैसी रेत के पुल की जो नदी के वेग के साथ नष्ट हो जाता है। जिस प्रकार तिल कोल्हू में पेरे जाते हैं, उसी प्रकार वे मनुष्य पेरे जाते हैं जो संसार के मोह में फँस जाता है और निकल नहीं सकत...
आत्मचिंतन के क्षण
सुख- दुःख हर तरह की परिस्थिति में सन्तुष्ट रहने को सन्तोष कहते हैं। कुसंस्कारों के परिशोधन एवं सुसंस्कारों के अभिवर्द्धन के लिए स्वेच्छापूर्वक जो कष्ट उठाया जाता है- वह तप कहलाता है। स्वयं के अध्ययन- विश्लेषण के लिए किया जाने वाला अध्यवसाय स्वाध्याय है। अपने चित्त को श्रद्धापूर्वक परमात्मा के दिव्य स्वरूप में नियोजित करना ईश्वर प्राविधान कहलाता है।
संकीर्ण स्वार्थपरता एवं आसुरी जीवन दर्शन को निरस्त करने के लिए आवश्यक है कि चिन्तन की उत्कृष्टता ,स्वभावगत शालीनता और व्यवहार की आदर्शवादिता के दूरगामी सत्परिणामों को तर्क, प्रमाण और उदाहरणों सहित समझाया जाय।
भगवान् पत्र, पुष्पों के बदले नही, भावनाओं के बदले प्राप्त किये जाते हैं और वे भावनाएँ आवेश, उ...